Natasha

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राजा की रानी

राजलक्ष्मी की दोनों ऑंखें आनन्द से चमक उठीं। बोली, “तो चलो, पर मन ही मन देवता की अवज्ञा तो नहीं करोगे?”


जवाब दिया, “शपथ तो नहीं ले सकता, परन्तु तुम्हारा रास्ता देखते हुए मैं मन्दिर के द्वार पर ही खड़ा रहूँगा। मेरी तरफ से तुम देवता से वर माँग लेना।”

“बताओ, क्या वर माँगूँ?”

अन्न का ग्रास मुँह में डालकर सोचने लगा, पर कोई भी कामना न सूझी।

“तुम्हीं बताओ न लक्ष्मी, मेरे लिए तुम क्या माँगोगी?”

राजलक्ष्मी ने कहा, “आयु माँगूँगी, स्वास्थ्य माँगूँगी, और यह माँगूँगी कि तुम मेरे प्रति कठिन हो सको जिससे मुझे अधिक प्रश्रय देकर अब फिर मेरा सर्वनाश न करो। करने को ही तो बैठे थे!”

“लक्ष्मी, देखो यह तुम्हारे रूठने की बात है।”

“रूठना तो है ही। तुम्हारी वह चिट्ठी क्या कभी भूल सकूँगी?”

मुँह लटकाकर मैं चुप हो रहा।

उसने अपने हाथ से मेरा मुँह ऊपर उठाकर कहा, “पर इसलिए यह भी मै। नहीं सह सकती। किन्तु तुम कठोर तो हो नहीं सकोगे, तुम्हारा ऐसा स्वभाव ही नहीं है। लेकिन यह काम अब से मुझे ही करना पड़ेगा, अवहेला करने से काम नहीं चलेगा।”

पूछा, “कौन सा काम? और भी निर्जल उपवास?”

राजलक्ष्मी ने हँसकर कहा, “उपवास से राजा नहीं मिलती वरन् अहंकार बढ़ जाता है। अब मेरा पथ वह नहीं है।”

“तब तुमने कौन सा पथ ठहराया है?”

“ठीक नहीं कर सकी हूँ, खोज में घूम रही हूँ।”

“अच्छा, सचमुच तुम्हें यह विश्वास होता है कि मैं कभी कठोर हो सकता हूँ?”

“होता है जी, और खूब होता है।”

“नहीं, कभी नहीं होता, तुम झूठ कहती हो।”

राजलक्ष्मी सिर हिलाकर हँसते हुए बोली, “अच्छा, झूठ ही सही। किन्तु गुसाईंजी, यही तो मेरे लिए विपद की बात हैं तुम्हारी कमललता ने भी क्या खूब नाम रक्खा है! दिनभर “हाँ जी,” “ओ जी,” “सुनो जी,” करते-करते जान जाती थी, अब से मैं पुकारूँगी “नये गुसाईं” कहकर।”

“मजे से।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “तब तो शायद कभी गलती से मुझे कमललता ही समझ लोगे- पर इससे भी शान्ति ही मिलेगी। कहो, ठीक है न?”

हँसकर कहा, “लक्ष्मी, मरने पर भी स्वभाव नहीं बदलता। ये ही बादशाही जमाने की लौंडी की-सी बातें हैं, अब तक तो वे तुम्हें जल्लाद के हाथ सौंप देते!”

सुनकर राजलक्ष्मी भी हँस पड़ी। कहा, “जल्लाद के हाथों में खुद ही अपने आप को सौंप दिया है।”

“पर तुम सदा से इतनी दुष्ट रही हो कि तुम पर शासन करने की शक्ति किसी भी जल्लाद में नहीं है।”

राजलक्ष्मी प्रत्युत्तर में कुछ कहने जा ही रही थी कि एकाएक विद्युत वेग से उठ बैठी, “अरे, यह क्या! दूध कहाँ है? मेरे सिर की कसम, देखो, उठ न जाना।” और यह कहती हुई वह द्रुत गति से बाहर चली गयी।

नि:श्वास छोड़कर कहा, “कहाँ यह, और कहाँ कमललता!”

दो मिनट बाद ही हाथ में दूध की कटोरी लिये आ गयी और पत्तल के पास रखकर पंखे से हवा करने बैठ गयी। कहने लगी, “अब तक मालूम होता था, मेरे मन में कहीं पाप है। इसी कारण गंगामाटी में मन नहीं लगा, और काशी धाम लौट आयी। गुरुदेव को बुलाकर अपने बाल कटवा दिये, गहने उतार डाले और तपस्या में पूर्णत: तल्लीन हो गयी। सोचा, अब कोई चिन्ता नहीं, स्वर्ग की सोने की सीढ़ी तैयार होती ही है!- एक आफत तुम थे, सो भी बिदा हो गये। किन्तु उस दिन से नेत्रों के पानी ने किसी तरह रुकना ही न चाहा। इष्ट मन्त्र सब भूल गयी, देवता अर्न्तध्यारन हो गये, हृदय बिल्कु्ल शुष्क हो गया। भय हुआ कि यदि यही धर्म की साधना है, तो फिर यह सब क्या हो रहा है! अन्त में कहीं पागल तो न हो जाऊँगी!”

मैंने सिर उठाकर उसके मुँह की ओर देखा और कहा, “तपस्या के आरम्भ में देवता भय दिखाया करते हैं। उनके सामने टिके रहने पर ही सिद्धि प्राप्त होती है।”

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